बैकरब (Backrub) क्या था और इसने इंटरनेट को कैसे बदल दिया?
क्या आप सोच सकते हैं कि इंटरनेट के शुरुआती दिनों में वेबपेजों को खोजना कितना मुश्किल रहा होगा? जी हाँ, 90 के दशक में सर्च इंजन सिर्फ कीवर्ड मैचिंग (keyword matching) पर काम करते थे। मतलब, अगर आप “सेब” लिखते, तो वो हर उस पेज को दिखा देता जहाँ “सेब” शब्द बार-बार आया हो, चाहे वह फल के बारे में हो या किसी कंपनी के नाम के बारे में! यहाँ आता है बैकरब (Backrub) का किस्सा—एक ऐसा सर्च इंजन जिसने गणितीय अल्गोरिदम (mathematical algorithm) की ताकत से इंटरनेट की दिशा ही बदल दी।
लैरी पेज (Larry Page) और सर्गेई ब्रिन (Sergey Brin), स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के दो पोस्टग्रेजुएट छात्र, 1998 में एक ऐसी टेक्नोलॉजी पर काम कर रहे थे जो वेबपेजों को उनके “प्रोमिनेंस (prominence)” यानी प्रमुखता के आधार पर रैंक करे। उनका आइडिया सिंपल था: जिस वेबपेज को जितने ज़्यादा वेबसाइट्स लिंक (link) करेंगी, वह उतना ही अहम होगा। यही कॉन्सेप्ट आगे चलकर पेजरैंक (PageRank) के नाम से मशहूर हुआ।
पेजरैंक अल्गोरिदम (PageRank Algorithm) क्या है और यह कैसे काम करता है?
कल्पना कीजिए कि इंटरनेट एक विशाल लाइब्रेरी है, और हर वेबपेज एक किताब। पुराने सर्च इंजन सिर्फ किताब के कवर (Title) और इंडेक्स (Keywords) को देखकर रिजल्ट दिखाते थे। लेकिन पेजरैंक ने यह सोचा कि “अगर बहुत सारी किताबें किसी एक किताब का ज़िक्र (Reference) करें, तो वह किताब ज़रूर महत्वपूर्ण होगी!”
यहाँ टेक्निकल पार्ट आता है: पेजरैंक अल्गोरिदम हर वेबपेज को एक “वोट” के तौर पर ट्रीट करता है। जितने ज़्यादा बैकलिंक्स (Backlinks) यानी दूसरे साइट्स के लिंक्स किसी पेज को मिलते हैं, उसका स्कोर उतना ही बढ़ता है। लेकिन सिर्फ संख्या ही नहीं, क्वालिटी (Quality) भी मायने रखती है। उदाहरण के लिए, अगर कोई प्रतिष्ठित (Reputed) वेबसाइट जैसे BBC या Wikipedia आपके पेज को लिंक करे, तो उसका वजन एक सामान्य ब्लॉग के लिंक से कहीं ज़्यादा होगा।
इसे समझने के लिए एक एनालॉजी (Analogy) लेते हैं: मान लीजिए आप एक कॉलेज के प्रोफेसर हैं। अगर आपका रिसर्च पेपर (Research Paper) हार्वर्ड या ऑक्सफोर्ड के प्रोफेसर्स द्वारा सिट (Cite) किया जाए, तो आपकी क्रेडिबिलिटी (Credibility) बढ़ जाती है। बिल्कुल यही लॉजिक पेजरैंक में काम करता है!
लिंक ज्योमेट्री (Link Geometry) और गणित का जादू
बैकरब की सफलता का राज़ था हाइपरलिंक एनालिसिस (Hyperlink Analysis)। लैरी और सर्गेई ने वेब को एक “डायरेक्टेड ग्राफ़ (Directed Graph)” के रूप में देखा, जहाँ हर वेबपेज एक नोड (Node) है और हाइपरलिंक एक एज (Edge) यानी कनेक्शन। इस ग्राफ़ में, अगर Node A से Node B को लिंक है, तो A, B को वोट दे रहा है।
इस पूरी प्रक्रिया को गणितीय रूप से समझने के लिए मार्कोव चेन (Markov Chain) और ईजेनवेक्टर (Eigenvector) जैसे कॉन्सेप्ट्स का इस्तेमाल हुआ। मार्कोव चेन एक स्टोकेस्टिक प्रोसेस (Stochastic Process) है जो यह प्रिडिक्ट करता है कि एक यूजर किस वेबपेज पर जाएगा। वहीं, ईजेनवेक्टर एक लीनियर अल्गेब्रा (Linear Algebra) कॉन्सेप्ट है जो मैट्रिक्स (Matrix) के सबसे महत्वपूर्ण डायरेक्शन को दर्शाता है। इन दोनों को कॉम्बाइन करके पेजरैंक स्कोर कैल्कुलेट किया जाता था!
बैकरब से गूगल तक का सफर: एक क्रांति की शुरुआत
1998 में बैकरब एक रिसर्च प्रोजेक्ट था, लेकिन लैरी और सर्गेई को जल्द ही एहसास हुआ कि यह टेक्नोलॉजी कमर्शियल पोटेंशियल (Commercial Potential) रखती है। उन्होंने इसका नाम बदलकर गूगल (Google) रखा—जो “गूगोल (Googol)” शब्द का प्ले-ऑन वर्ज़न है, जो 10^100 को दर्शाता है (यानी अनंत संख्या)।
गूगल ने सर्च इंजन की दुनिया में क्यों छा लिया? क्योंकि इसने यूजर्स को रिलेवेंट (Relevant) और अथॉरिटेटिव (Authoritative) रिजल्ट्स दिए। उदाहरण के लिए, अगर आप “सर्वश्रेष्ठ पिज़्ज़ा रेसिपी” सर्च करते, तो गूगल उन साइट्स को ऊपर दिखाता जिन्हें अन्य कुकिंग वेबसाइट्स या ब्लॉग्स ने रेफर किया हो, न कि वो जहाँ “पिज़्ज़ा” शब्द 100 बार दोहराया गया हो!
टेक्नोलॉजी की लिमिटेशन्स (Limitations) और भविष्य
हालाँकि पेजरैंक रिवोल्यूशनरी था, लेकिन इसमें कमियाँ भी थीं। जैसे, स्पैमर्स (Spammers) ने बैकलिंक्स खरीदकर रैंकिंग में हेराफेरी शुरू कर दी। इसे रोकने के लिए गूगल ने पेंग्विन (Penguin) और पांडा (Panda) जैसे अल्गोरिदम अपडेट लॉन्च किए, जो कॉन्टेंट क्वालिटी और लिंक्स की प्रामाणिकता (Authenticity) चेक करते हैं।
आज, गूगल का अल्गोरिदम AI और मशीन लर्निंग (Machine Learning) पर आधारित है, लेकिन बैकरब का कोर फिलॉसफी—यानी “लिंक्स को वोट्स मानना”—आज भी सर्च रैंकिंग का एक बड़ा हिस्सा है।
निष्कर्ष: क्यों महत्वपूर्ण है बैकरब का इतिहास?
अगर आप टेक्नोलॉजी के स्टूडेंट हैं, तो बैकरब की कहानी सिर्फ एक इतिहास नहीं, बल्कि इनोवेशन (Innovation) का ब्लूप्रिंट है। यह सिखाती है कि कैसे सिंपल गणितीय सिद्धांतों से दुनिया बदली जा सकती है। आज जब आप गूगल पर कुछ सर्च करते हैं, तो उसके पीछे 1998 के उन दो छात्रों का दिमाग और उनका पर्सिस्टेंस (Persistence) काम कर रहा है!
तो अगली बार गूगल का लोगो देखें, तो याद रखिए—यह सिर्फ एक सर्च इंजन नहीं, बल्कि गणित, इनोवेशन और सपनों का मिश्रण है!
📌 संक्षेप में:
- बैकरब (Backrub) 1998 में लैरी पेज और सर्गेई ब्रिन द्वारा बनाया गया एक सर्च इंजन प्रोजेक्ट था।
- पेजरैंक अल्गोरिदम ने वेबपेजों को उनके बैकलिंक्स की संख्या और गुणवत्ता के आधार पर रैंक किया।
- यह टेक्नोलॉजी बाद में गूगल बन गई जिसने इंटरनेट सर्च को हमेशा के लिए बदल दिया।
- मूल अवधारणा (लिंक्स को वोट्स मानना) आज भी सर्च इंजनों में प्रासंगिक है।
🔍 लोग यह भी पूछते हैं:
1. पेजरैंक और आधुनिक गूगल अल्गोरिदम में क्या अंतर है?
पेजरैंक मुख्य रूप से बैकलिंक्स पर आधारित था, जबकि आज गूगल के अल्गोरिदम में 200+ फैक्टर्स शामिल हैं जैसे कंटेंट क्वालिटी, यूजर एक्सपीरियंस, मोबाइल फ्रेंडलीनेस, और AI-आधारित रैंकिंग सिस्टम (BERT, MUM)। हालांकि, लिंक्स अभी भी एक महत्वपूर्ण रैंकिंग फैक्टर हैं।
2. बैकरब का नाम गूगल क्यों रखा गया?
“बैकरब” नाम तकनीकी लगता था और यह सिर्फ लिंक एनालिसिस पर फोकस्ड था। “गूगल” नाम “गूगोल” (10^100) से प्रेरित था जो इंटरनेट पर अनंत जानकारी को इंडेक्स करने के उनके विजन को दर्शाता था। यह नाम सरल, याद रखने में आसान और ब्रांडेबल था।
3. क्या आज भी पेजरैंक स्कोर का उपयोग होता है?
गूगल ने आधिकारिक तौर पर 2016 में पब्लिक पेजरैंक स्कोर को डिस्कंटिन्यू कर दिया, लेकिन लिंक-आधारित रैंकिंग का कोर कॉन्सेप्ट अभी भी उनके अल्गोरिदम का हिस्सा है। आज गूगल अधिक सोफिस्टिकेटेड तरीके से लिंक्स का मूल्यांकन करता है।
4. बैकरब के विकास में स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की क्या भूमिका थी?
स्टैनफोर्ड ने न सिर्फ इनोवेशन के लिए वातावरण दिया बल्कि शुरुआती इंफ्रास्ट्रक्चर (सर्वर स्पेस) और नेटवर्किंग के अवसर भी प्रदान किए। बैकरब मूल रूप से स्टैनफोर्ड की वेबसाइट (google.stanford.edu) पर होस्ट किया गया था और यहाँ के प्रोफेसर्स व शोधार्थी इसके प्रारंभिक यूजर्स थे।
📊 बैकरब से गूगल तक का विकासक्रम
वर्ष | घटना | महत्व |
---|---|---|
1996 | बैकरब प्रोजेक्ट की शुरुआत | लैरी पेज ने वेब लिंक्स के गणितीय विश्लेषण पर काम शुरू किया |
1998 | गूगल इंकॉर्पोरेटेड | सन माइक्रोसिस्टम्स के संस्थापक एंडी बेक्टोल्शीम से $100,000 का पहला निवेश |
2001 | पेजरैंक पेटेंट | स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के नाम पर पेटेंट (गूगल को एक्सक्लूसिव लाइसेंस) |
2004 | आईपीओ (IPO) | गूगल सार्वजनिक कंपनी बनी, $85 प्रति शेयर की कीमत |
2015 | अल्फाबेट इंक बनी | गूगल अल्फाबेट की सब्सिडियरी कंपनी बन गया |
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